ये सुनने सुनाने का मसला इतना आसान नहीं होता
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ये सुनने सुनाने का मसला इतना आसान नहीं होता..
थोड़ा पेचीदा होता है ..
ये सुनने सुनाने का मसला इतना आसान कहाँ होता..
थोड़ा पेचीदा होता है ..
कभी वो सुना नहीं पाते ..
कभी हम सुन नहीं पाते ..
कभी हम समझ ही नहीं पाते कि,
वो कुछ कहना चाहते हैं ..
तो कभी वो महसूस नहीं कर पाते,
जब हम उनको सच में सुनना चाहते हैं ..
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कभी हमनें कदम बढ़ाया,
तो उन्होंने पीछे खींच लिया..
और जब चाहत हुई उनको कुछ कहने की,
तो उसे समझ पाने की समझ नें हमसे मुँह मोड़ लिया..
कभी जब ..
बहुत कोशिशों के बाद,
थोड़ा क़रीब पहुंचे उनके..
और हाथ बढ़ा कर थामना चाहा उनको,
तो उन्होंने अपने “स्पेस” का हवाला देकर,
वहीं रोक दिया..
वहीं रोक दिया..
कभी शायद .. हमारी कोशिशें थोड़ी कम रह गयीं ..
तो कभी हुईं ढ़ेरों नाक़ाम . .
कभी जब लड़खड़ाये वो,
तो शायद उन्हें कुछ यूँ लगा कि उनकी तो है बस ज़मीन,
और हमारा आसमान ..
बस इन्हीं गलतफहमियों में बढ़ती गयीं उलझनें ..
समझ ना पाये हम,
और वो भी लगे, ना जाने क्या क्या सोचने ..
आखिर क्यों ..
आखिर क्यों हम ये बात समझ नहीं पाते,
कि कुछ समझना समझाना नहीं है एक दुसरे को..
बस, अपनाना है ..
मैं जैसी हूँ.. तुम जैसे हो..
इस बात को अपनाना है ..
इस बात को अपनाना है कि
गर हो तुम बेचैन,
तो बहुत सुकून में हम भी नहीं ..
उलझनें ज़िन्दगी की, अगर तुम्हें तमाम
तो कुछ कम इधर भी नहीं ..
अगर तुम बहुत कुछ कहना चाहते हो,
तो कुछ हम भी कहना चाहते हैं ..
चलो ..
हम तुम एक नए सफर पे जाते हैं ..
कभी तुम्हारी छत पर,
तो कभी हमारी बालकॉनी में,
चाय की कुछ चुस्कियाँ साथ में लगाते हैं ..
चलो ना यार ..
हम तुम एक नए सफर पे जाते हैं ..