रक्त पिपासु बन बैठा जग,
भौतिक सुख पाने को !
है संकीर्णता नस-नस में घुल चुकी,
भाई, भाई का प्राण हैं लेते !!
कुंद पर चुका है स्वविवेक,
परहित का है ध्यान नहीं !
मानो प्रकृति कह रही हमसे,
सर्वनाश है निकट खड़ा !!
है कर्म प्रबल, कोई धर्म नहीं
पाओगे वही जो बोया है !
लड़कर सुख हो छीज सकते,
मुक्ति से दूर हो जाओगे !!
क्या सोच आये थे, धरा को
नर्क बना जाओगे !
हे! मूढ़मति अब भी संभलो,
है दुःखद अंत आने वाला !!
नस-नस में अंगार जलेगा,
सब दर्प भष्म हो जाएगा !
राखों के ढ़ेर पर रक्तवर्ण,
यमदूत खड़ा गुर्राएगा !
~Harsh Nath Jha