मोहभंग नहीं, उच्छ्वास है ये
जलती गंगा की प्यास है ये !
रौद्र रूप है प्रकृति का,
पापी मनुष्यों का अंत है ये !!
उबल रहा है, अथाह समुद्र
ओ कड़क रहा है अनंत गगन !
विष घुलने लगी है हवाओं में,
धरती फटने को है आतुर !!
क्यों हित का ध्यान करें तेरा,
क्या तुमने प्रेम किया उससे !
अपनी बेरुखी दिखा सबने,
आमंत्रण दिया विनाश को है !
~Harsh Nath Jha