क्यों रुकूँ मैं, क्यों झुकूं मैं
इस बेरहम संसार से !
जो है पाया, है जो खोना
सब नियति का खेल है !!
साष्टांगवत हो बढ़ रहे सब,
पाप नद में लोटने !
धर्म का मैं आचरण करता चलूँ,
फिर क्यों डरूँ !!
है भय नहीं संसार का,
जो खोखली है हो चुकी !
प्रेम नहीं, संज्ञा नहीं ओ ना ही विश्वास
जो शेष हो कुछ तो बताओ !!
क्यों त्यजूं सामर्थ्य को,
जो गर्व हो निज आदर्शों पर !!
प्रत्येक क्षण जीता चलूँ ,
फिर मृत्यु से भी क्यों डरूँ !!
जो है पाया, है जो खोना
सब नियति का खेल है !!
~Harsh Nath Jha