खत्म हो जाएगा इंसान का नामोनिशान, ये रहे 6 कारण
▶1. अंधाधुंध खनन
धरती के भीतर अक्षय ऊर्जा मौजूद है। इसके भीतर दबे खनिज लवण हमारी भलाई के लिए हैं। लेकिन स्वार्थ में अंधे होकर हम धरती का लगातार खनन कर रहे हैं जिसके चलते धरती खोखली हो रही है।
कभी हम समुद्र से तेल निकाल रहे हैं तो कभी धरती से हीरा। कोयले और अन्य खनिजों को पाने के लिए हम रोज धरती का सीना छलनी कर रहे हैं।
हम भूल गए हैं कि इन प्राकृतिक संसांधनों के चलते ही धरती उपजाऊ और हरियाली है। अगर इन रत्नों को पूरी तरह निकाल लिया गया तो धरती बांझ हो जाएगी। इस तरह बड़ी तादाद में खनन होता रहा तो आने वाले सालों में समुद्र के भीतर तेल की बूंद तक नहीं मिलेगी। खनिज लवण की बात की जाए तो लगातार खनन से इनकी भी कमी होने वाली है। जबकि यह जगजाहिर है कि धरती के उपजाऊपन को बनाए रखने में इन खनिज और लवणों का कितना योगदान है।
दूसरी खास बात ये है कि लगातार खनिज लवण निकाल कर हम आने वाली पीढ़ी के लिए धरती के भीतर कुछ नहीं छोड़ेंगे।
▶2. वायु प्रदूषण
वो दिन दूर नहीं जब स्वच्छ और ताजी सांस के लिए हमें टेक्स देना पड़े। दुनिया भर की हवा प्रदूषित होती जा रही है। चीन का उदाहरण ले लीजिए। यहां हर समय एक मटमैली धुंध सी छायी रहती है। सांस लेने के लिए ताजी हवा तक मुहैया नहीं।
हालात ये हैं कि चीन में कंपनियां फ्रेश एयर के नाम पर लोगों को डिब्बा बंद ताजी हवा बेच रही हैं। पैसे वाले लोग और विदेशी पर्यटक बाटल में पैक इस ताजी हवा को भारी दाम चुकाकर खरीद रहे हैं। लेकिन बाकी जनता का क्या होगा, ये सवाल ज्यों का त्यों है।
चीन का वायु प्रदूषण दुनिया के बाकी देशों की तुलना में कई गुणा ज्यादा है। दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक चीन की राजधानी बीजिंग में वायु प्रदूषण का स्तर सामान्य स्तर से पांच गुना ज्यादा है। पिछले साल 12 जनवरी को बीजिंग में वायु प्रदूषण 755 पीएम (वायु प्रदूषण को मापने का पैमाना) के स्तर तक जा पहुंचा था जो सामान्य स्तर से 10 गुना ज्यादा है।
विश्व के सबसे ज्यादा वायु प्रदूषित शहरों में ईरान का अवहाज शहर पहले नंबर पर है। इस लिस्ट में दिल्ली के अलावा कानपुर और लुधियाना भी शामिल हैं। जबकि पाकिस्तान के क्वेटा और पेशावर जैसे शहरों को इस लिस्ट में शामिल किया गया है।
▶3. कटते पेड़ घटती हरियाली
यह जानते हुए भी कि पेड़ हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा हैं और इनसे निकलने वाली ऑक्सीजन से ही हमारी सांसे चलती हैं, हम अंधे होकर पेड़ काट रहे हैं।जंगल कम हो रहे हैं और उनके बदले उग रहे हैं कंक्रीट के जंगल। बढ़ती आबादी को खपाने के लिए जंगल, खेत खलिहान खत्म हो रहे हैं। जंगलों के कटने से एक तरफ वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर मिट्टी का कटाव भी तेजी से हो रहा है।
ये तस्वीर अमेरिका के ऑरेगान में नेशनल विलियमेट फॉरेस्ट की है जो 99 फीसदी काटा जा चुका है।यानी कभी घने जंगल के रूप में जाने वाले इस ठूंठ इलाके में एक फीसदी पेड़ ही बचे हैं।
एक ग्रीनपीस और वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की तरफ से कराए गए सर्वे के अनुसार पिछले पांच दशक में अमेजन के जंगल 17 फीसदी कम हो चुके हैं।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड की तरफ से जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हर मिनट में फुलबॉल की 36 फील्ड के बराबर जंगल नष्ट हो रहे हैं। जंगलों के कटने से एक तरफ भूक्षरण हो रहा है तो दूसरी तरफ सूखा पड़ रहा है।असंतुलित मौसम चक्र भी खेत खलिहान के हम होने का नतीजा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार हमारी धरती पर अब 30 फीसदी वन क्षेत्र ही बचा है, जो अपने आप में एक खतरे की घंटी है। वनों की तबाही और इसके चलते वन्य जीवों के विलुप्त होने के यह आंकड़े बहुत भी भयानक हैं।
▶4. पिघलते ग्लेशियर
ये तस्वीर नार्वे के नजदीक सेवेलब्रेड आइसलैंड का है। इस आइसलैंड के ग्लेशियर कभी नहीं पिघले लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां बर्फ बहकर झरनों में तब्दील हो रही है।
दरअसल ग्लोबल वार्मिंग का असर ग्लेशियरों पर भी पड़ा है और मौसम में संतुलन पैदा करने वाले ये ग्लेशिय पिघलते जा रहे हैं। इससे समुद्र के स्तर में इजाफा हो रहा है और दुनिया रोज रोज समुद्री तूफानों और सुनामियों को झेलने को अभिशप्त हो रही है।
नासा के मुताबिक उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ पिघलने की रफ्तार प्रति दशक नौ फीसदी हो गई है। इतना ही नहीं आर्कटिक में बर्फ की मोटाई पिछले पचास सालों में 40 फीसदी कम हो गई है।
नेशनल स्नो एंड आईस डाटा सेंटर की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व सर्वाधिक बर्फीले क्षेत्र यानी नार्वे, डेनमार्क और स्वीडन में पिछले तीन दशक में 20 फीसदी बर्फ गायब हो गई है।
यूएस सैंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग का यही दौर रहा तो 2040 तक आर्कटिक की बर्फ पूरी तरह गायब हो जाएगी।
▶5. खत्म होती नदियां
अन्तरारष्ट्रीय स्तर पर चल रही बहस के मुताबिक अगला विश्वयुद्ध पेयजल को लेकर होगा। इस बात की बानगी कम हो रहे पेयजल और दूषित होती नदियां हैं जो गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है।
मानव जाति के लिए स्वच्छ पेयजल का सबसे अच्छा स्त्रोत मानी जाने वाली नदियों को इंसान ने खत्म कर डाला है। इनमें कूड़ा कचरा डाल कर, बांध बना कर इन्हें तबाह कर दिया है। हिमालय के हिमनदों से दक्षिण एशिया के कई देशों को पेयजल मिल रहा है और वैज्ञानिकों ने इन हिमनदों के 2050 तक गायब होने या सूखने की आशंका जाहिर की है।
अपने ही देश का उदाहरण ले लीजिए, गंगा, यमुना, गंगोत्री और यमुनोत्री का पानी पीने लायक नहीं रहा। नदी किनारे बसे कारखानों का रसायनिक कचरा इन्हीं में बहाया जा रहा है। सड़ी गली लाशें तक इन नदियों में बहाई जा रही है। नदियों का जल इतना गंदा हो चुका है कि ये नालों में तब्दील होती जा रही हैं।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक 1948 से लेकर 2005 तक विश्व की 925 बड़ी नदियां सूख चुकी हैं। इससे पेयजल की भयंकर कमी हुई है और बड़ी जनसंख्या वाले देशों में पेयजल की भयंकर कमी हो रही है और पानी को लेकर राज्यों में तनाव बढ़ रहा है।
▶6. बढ़ता प्लास्टिक और इलेक्ट्रॅानिक कचरा
तकनीक बढ़ रही है और इसका फायदा इंसान को हो रहा है। लेकिन यही तकनीक धरती को नुकसान पहुंचा रही है। धरती पर बढ़ रहा इलेक्ट्रोनिक कचरा प्रदूषण बढा रहा है। इससे निकलने वाले खतरनाक रसायन धरती की उम्र कम कर रहे हैं।प्लास्टिक यानी पॉलीमर की बात की जाए तो हालात और ज्यादा खतरनाक हैं।प्लास्टिक से बने सामान और पॉलीपेक ने डिस्पोजल संबंधी समस्या पैदा कर दी है।
पिछले पचास सालों से दुनिया में पॉलीबैग्स यानी प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल हो रहा है। इसका डिस्पोजल मुश्किल है औ इसी कारण ये धरती को नुकसान पहुंचा रहा है। समुद्री तटों पर मरे पाए जाने वाले जीव जंतुओं से पेट से प्लास्टिक निकल रहा है। मिट्टी में प्लास्टिक घुल नहीं पाता और इसलिए ये मिट्टी में जल के संचयन को रोक देता है। इसे जलाने पर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक गैसें निकलती हैं।