There were two beloved son of a mystic

एक फकीर के दो बड़े प्यारे बेटे थे, जुड़वां बेटे थे।
नगर की शान थे। सम्राट भी उन बेटों को देखकर ईर्ष्या से भर
जाता था। सम्राट के बेटे भी वैसे सुंदर नहीं थे, वैसे
प्रतिभाशाली नहीं थे। उसे गांव में रोशनी थी उन दो बेटों की।
उनका व्यवहार भी इतना ही शालीन था, भद्र था। वह
सूफी फकीर उन्हें इतना प्रेम करता था, उनके बिना कभी भोजन
नहीं करता था, उनके बिना कभी रात सोने नहीं जाता था।
एक दिन मस्जिद से लौटा प्रार्थना करके, घर आया, तो आते ही से
पूछा, बेटे कहां हैं? रोज की उसकी आदत थी। उसकी पत्नी ने कहा,
पहले भोजन कर लें, फर बताऊं, थोड़ी लंबी कहानी है। पर उसने कहा,
मेरे बेटे कहां हैं? उसने कहा कि आपसे एक बात कहूं? बीस साल पहले
एक धनपति गांव का हीरे—जवाहरातो से भरी हुई एक थैली मेरे
पास अमानत में रख गया था। आज वापस मांगने आया था। तो मैं
उसे दे दूं कि न दूं? फकीर बोला, पागल, यह भी कोई पूछने की बात
है? उसकी अमानत, उसने दी थी, बीस साल वह हमारे पास रही,
इसका मतलब यह नहीं कि हम उसके मालिक हो गए। तूने दे
क्यों नहीं दी? अब मेरे से पूछने के लिए रुकी है? यह भी कोई बात हुई!
उसी वक्त दे देना था। झंझट टलती। तो उसने ‘कहा, फिर आप आएं,
फिर कोई अड़चन नहीं है।
वह बगल के कमरे में ले गयी, वे दोनों बेटे नदी में डूबकर मर गए थे।
नदी में पेरने गए थे, डूब गए। उनकी लाशें पड़ी थीं, उसने चादर
उढा दी थी, फूल डाल दिये थे लाशों पर। उसने कहा, मैं इसीलिए
चाहती थी कि आप पहले भोजन कर लें। बीस साल पहले जिस
धनी ने ये हीरे—जवाहरात हमें दिए थे, आज वह वापस मागने
आया था और आप कहते हैं कि दे देना था, सो मैंने दे दिए।

यही भाव है। उसने दिया, उसने लिया। बीच में तुम मालिक मत बन
जाना। मालकियत नहीं होनी चाहिए। मिल्कियत
कितनी भी हो, मालकियत नहीं होनी चाहिए। बड़ा राज्य हो,
मगर तुम उस राज्य में ऐसे ही जीना जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं है।
तुम्हारा है भी नहीं कुछ। जिसका है उसका है। सबै भूमि गोपाल
की। वह जाने। तुम्हें थोड़ी देर के लिए मुख्यार बना दिया,
कि सम्हालो। तुमने थोड़ी देर मुख्यारी कर ली, मालिक मत बन
जाओ। भूलो मत। जिसने दिया है, ले लेगा। जितनी देर दिया है,
धन्यवाद! जब ले ले, तब भी धन्यवाद! जब दिया, तो इसका उपयोग
कर लेना, जब ले ले, तो उस लेने की घड़ी का भी उपयोग कर लेना,
यही संन्यासी की कला है, यही संन्यास की कला है।
न तो छोड़ना है संन्यास, न पकड़ना है संन्यास। न तो भोग, न
त्याग। संन्यास दोनों से मुक्ति है। संन्यास सभी कुछ प्रभु पर
समर्पित कर देने का नाम है। मेरा कुछ भी नहीं, तो मैं
छोडूंगा भी क्या? तो जो है उसका उपयोग कर लेना।