क्यों रुकूँ मैं, क्यों झुकूं मैं इस बेरहम संसार से !

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क्यों रुकूँ मैं, क्यों झुकूं मैं
इस बेरहम संसार से !
जो है पाया, है जो खोना
सब नियति का खेल है !!

साष्टांगवत हो बढ़ रहे सब,
पाप नद में लोटने !
धर्म का मैं आचरण करता चलूँ,
फिर क्यों डरूँ !!

है भय नहीं संसार का,
जो खोखली है हो चुकी !
प्रेम नहीं, संज्ञा नहीं ओ ना ही विश्वास
जो शेष हो कुछ तो बताओ !!

क्यों त्यजूं सामर्थ्य को,
जो गर्व हो निज आदर्शों पर !!
प्रत्येक क्षण जीता चलूँ ,
फिर मृत्यु से भी क्यों डरूँ !!

जो है पाया, है जो खोना
सब नियति का खेल है !!
~Harsh Nath Jha

[sc name=”share” id=”112665″ text=”क्यों रुकूँ मैं, क्यों झुकूं मैं इस बेरहम संसार से ! जो है पाया, है जो खोना सब नियति का खेल है !! साष्टांगवत हो बढ़ रहे सब, पाप नद में लोटने ! धर्म का मैं आचरण करता चलूँ, फिर क्यों डरूँ !! है भय नहीं संसार का, जो खोखली है हो चुकी ! प्रेम नहीं, संज्ञा नहीं ओ ना ही विश्वास जो शेष हो कुछ तो बताओ !! क्यों त्यजूं सामर्थ्य को, जो गर्व हो निज आदर्शों पर !! प्रत्येक क्षण जीता चलूँ , फिर मृत्यु से भी क्यों डरूँ !! जो है पाया, है जो खोना सब नियति का खेल है !!”]