खुशबु आ रही हैं कहीँ से गांजे और भांग की,
शायद खिड़की खुली रह गयी हैं ‘मेरे महांकाल’ के दरबार की।
Khusboo aa rhi hai
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शायद खिड़की खुली रह गयी हैं ‘मेरे महांकाल’ के दरबार की।