एक रीत ….
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रंगीन फीतों से सज गयीं नन्हीं नन्हीं गुथी चोटियाँ..
माथे चमकी बिंदिया, हाथों खनकी चूड़ियाँ..
पैरों में छम-छम,
और गालों पर खुशी की लाली चमक रही है..
आज ये उड़ती छोटी चूनर,
खिड़की में किसकी बाट जोह रही है..??
आज लगा है मेला..
बाबुल आ कर दिखलायेगा..
कान्धों पे अपने बैठा के,
दुनिया के नये रंग दिखायेगा..
बाबुल आया..
मेला भी दिखलाया..
फिर शाम ढ़लते ये ख़याल आया..
कि मेले से दिलवाकर ये छोटा गुड्डा,
इसे मेरा दूल्हा क्यों बतलाया..
ये मेला, गुड्डा़.. तरक़ीब थी मुझे बहलाने की..
या साज़िश थी,
एक रीत मुझे समझाने की..
एक रीत मुझे समझाने की.. !!